तो मां बोलती,
"अरे, उसकी छातियां ज्यादा बडी थोडे ही है, जो वो बडा ब्लाउस पहनेगी, हां उसकी सांस के ब्लाउस बहुत बडे-बडे है। बुढीया की छाती पहाड जैसी है।"
कह कर मां हसने लगती। फिर मेरे से बोलती,
"तु सबके ब्लाउस की लंबाई-चौडाई देखता रहता है, क्या ? या फिर ईस्त्री करता है।"
मैं क्या बोलता, चुप-चाप सिर झुका कर ईस्त्री करते हुए धीरे से बोलता,
"अरे, देखता कौन है ?, नजर चली जाती है, बस।"
ईस्त्री करते-करते मेरा पुरा बदन पसीने से नहा जाता था। मैं केवल लुन्गी पहने ईस्त्री कर रहा होता था। मां मुझे पसीने से नहाये हुए देख कर बोलती,
"छोड अब तु कुछ आराम कर ले, तब तक मैं ईस्त्री करती हुं."
मां ये काम करने लगती। थोडी ही देर में उसके माथे से भी पसीना चुने लगता और वो अपनी साडी खोल कर एक ओर फेंक देती और बोलती,
"बडी गरमी है रे, पता नही तु कैसे कर लेता है, इतने कपडो की ईस्त्री,,? मेरे से तो ये गरमी बरदास्त नही होती।"
इस पर मैं वहीं पास बैठा उसके नन्गे पेट, गहरी नाभी और मोटे चुंचो को देखता हुआ बोलता,
"ठंडी कर दुं, तुझे ?"
"कैसे करेगा ठंडी ?"
"डण्डेवाले पंखे से। मैं तुझे पंखा झाल देता हुं, फेन चलाने पर तो ईस्त्री ही ठंडी पड जायेगी।"
"रहने दे, तेरे डण्डेवाले पंखे से भी कुछ नही होगा, छोटा-सा तो पंखा है तेरा।",
कह कर अपने हाथ उपर उठा कर, माथे पर छलक आये पसीने को पोंछती तो मैं देखता की उसकी कांख पसीने से पुरी भीग गई है, और उसकी गरदन से बहता हुआ पसीना उसके ब्लाउस के अंदर, उसकी दोनो चुचियों के बीच की घाटी मे जा कर, उसके ब्लाउस को भीगा रहा होता।
घर के अंदर, वैसे भी वो ब्रा तो कभी पहनती नही थी। इस कारण से उसके पतले ब्लाउस को पसिना पुरी तरह से भीगा देता था और, उसकी चुचियां उसके ब्लाउस के उपर से नजर आती थी। कई बार जब वो हल्के रंग का ब्लाउस पहनी होती तो उसके मोटे-मोटे भुरे रंग के निप्पल नजर आने लगते। ये देख कर मेरा लंड खडा होने लगता था। कभी-कभी वो ईस्त्री को एक तरफ रख के, अपने पेटिकोट को उठा के पसीना पोंछने के लिये अपने सिर तक ले जाती और मैं ऐसे ही मौके के इन्तेजार में बैठा रहता था।
क्योंकि इस वक्त उसकी आंखे तो पेटिकोट से ढक जाती थी, पर पेटिकोट उपर उठने के कारण उसकी टांगे पुरी जांघ तक नन्गी हो जाती थी, और मैं बिना अपनी नजरों को चुराये उसकी गोरी-चीट्टी, मखमली जांघो को तो जी भर के देखता था।
रात में जब खाना खाने का टाईम आता, तो मैं नहा-धो कर किचन में आ जाता, खाना खाने के लिये। मां भी वहीं बैठ के मुझे गरम-गरम रोटियां शेक देती। और हम खाते रहते। इस समय भी वो पेटिकोट और ब्लाउस में ही होती थी। क्योंकि किचन में गरमी होती थी और उसने एक छोटा-सा पल्लु अपने कंधो पर डाल रखा होता। उसी से अपने माथे का पसीना पोंछती रहती और खाना खिलाती जाती थी मुझे। हम दोनो साथ में बाते भी कर रहे होते।
मैने मजाक करते हुए बोलता,
"सच में मा, तुम तो गरम ईस्त्री (वुमन) हो।"
वो पहले तो कुछ समझ नही पाती, फिर जब उसकी समझ में आता की मैं आयरन- ईस्त्री न कह के, उसे ईस्त्री कह रहा हुं तो वो हंसने लगती और कहती,
"हां, मैं गरम ईस्त्री हुं।",
और अपना चेहरा आगे करके बोलती,
"देख कितना पसीना आ रहा है, मेरी गरमी दुर कर दे।"
"मैं तुझे एक बात बोलुं, तु गरम चीज मत खाया कर, ठंडी चीजे खाया कर।"
"अच्छा, कौन सी ठंडी चीजे मैं खांउ, कि मेरी गरमी दुर हो जायेगी ?"
"केले और बैगन की सब्जियां खाया कर।"
इस पर मां का चेहरा लाल हो जाता था, और वो सिर झुका लेती और धीरे से बोलती,
"अरे केले और बैगन की सब्जी तो मुझे भी अच्छी लगती है, पर कोइ लाने वाला भी तो हो, तेरा बापु तो ये सब्जियां लाने से रहा, ना तो उसे केले पसंद ,है ना ही उसे बैगन।"
"तु फिकर मत कर। मैं ला दुन्गा तेरे लिये।"
"हाये, बडा अच्छा बेटा है, मां का कितना ध्यान रखता है।"
मैं खाना खतम करते हुए बोलता,
"चल, अब खाना तो हो गया खतम. तु भी जा के नहा ले और खाना खा ले।"
"अरे नही, अभी तो तेरा बापु देशी चढा के आता होगा। उसको खिला दुन्गी, तब खाउन्गी, तब तक नहा लेती हुं।
"अरे, उसकी छातियां ज्यादा बडी थोडे ही है, जो वो बडा ब्लाउस पहनेगी, हां उसकी सांस के ब्लाउस बहुत बडे-बडे है। बुढीया की छाती पहाड जैसी है।"
कह कर मां हसने लगती। फिर मेरे से बोलती,
"तु सबके ब्लाउस की लंबाई-चौडाई देखता रहता है, क्या ? या फिर ईस्त्री करता है।"
मैं क्या बोलता, चुप-चाप सिर झुका कर ईस्त्री करते हुए धीरे से बोलता,
"अरे, देखता कौन है ?, नजर चली जाती है, बस।"
ईस्त्री करते-करते मेरा पुरा बदन पसीने से नहा जाता था। मैं केवल लुन्गी पहने ईस्त्री कर रहा होता था। मां मुझे पसीने से नहाये हुए देख कर बोलती,
"छोड अब तु कुछ आराम कर ले, तब तक मैं ईस्त्री करती हुं."
मां ये काम करने लगती। थोडी ही देर में उसके माथे से भी पसीना चुने लगता और वो अपनी साडी खोल कर एक ओर फेंक देती और बोलती,
"बडी गरमी है रे, पता नही तु कैसे कर लेता है, इतने कपडो की ईस्त्री,,? मेरे से तो ये गरमी बरदास्त नही होती।"
इस पर मैं वहीं पास बैठा उसके नन्गे पेट, गहरी नाभी और मोटे चुंचो को देखता हुआ बोलता,
"ठंडी कर दुं, तुझे ?"
"कैसे करेगा ठंडी ?"
"डण्डेवाले पंखे से। मैं तुझे पंखा झाल देता हुं, फेन चलाने पर तो ईस्त्री ही ठंडी पड जायेगी।"
"रहने दे, तेरे डण्डेवाले पंखे से भी कुछ नही होगा, छोटा-सा तो पंखा है तेरा।",
कह कर अपने हाथ उपर उठा कर, माथे पर छलक आये पसीने को पोंछती तो मैं देखता की उसकी कांख पसीने से पुरी भीग गई है, और उसकी गरदन से बहता हुआ पसीना उसके ब्लाउस के अंदर, उसकी दोनो चुचियों के बीच की घाटी मे जा कर, उसके ब्लाउस को भीगा रहा होता।
घर के अंदर, वैसे भी वो ब्रा तो कभी पहनती नही थी। इस कारण से उसके पतले ब्लाउस को पसिना पुरी तरह से भीगा देता था और, उसकी चुचियां उसके ब्लाउस के उपर से नजर आती थी। कई बार जब वो हल्के रंग का ब्लाउस पहनी होती तो उसके मोटे-मोटे भुरे रंग के निप्पल नजर आने लगते। ये देख कर मेरा लंड खडा होने लगता था। कभी-कभी वो ईस्त्री को एक तरफ रख के, अपने पेटिकोट को उठा के पसीना पोंछने के लिये अपने सिर तक ले जाती और मैं ऐसे ही मौके के इन्तेजार में बैठा रहता था।
क्योंकि इस वक्त उसकी आंखे तो पेटिकोट से ढक जाती थी, पर पेटिकोट उपर उठने के कारण उसकी टांगे पुरी जांघ तक नन्गी हो जाती थी, और मैं बिना अपनी नजरों को चुराये उसकी गोरी-चीट्टी, मखमली जांघो को तो जी भर के देखता था।
मां, अपने चेहरे का पसीना अपनी आंखे बंध कर के पुरे आराम से पोंछती थी, और मुझे उसके मोटे कन्दली के खम्भे जैसी जांघो का पुरा नजारा दिखाती थी। गांव में औरते साधारणतया पेन्टी नही पहनती है। कई बार ऐसा हुआ की मुझे उसके झांठो की हलकी-सी झलक देखने को मिल जाती। जब वो पसीना पोंछ के अपना पेटिकोट नीचे करती, तब तक मेरा काम हो चुका होता और मेरे से बरदास्त करना संभव नही हो पाता। मैं जल्दी से घर के पिछवाडे की तरफ भाग जाता, अपने लंड के खडेपन को थोडा ठंडा करने के लिये। जब मेरा लंड डाउन हो जाता, तब मैं वापस आ जाता। मां पुछती,
"कहां गया था ?"
तो मैं बोलता,
"थोडी ठंडी हवा खाने, बडी गरमी लग रही थी।"
"ठीक किया। बदन को हवा लगाते रहना चाहिये, फिर तु तो अभी बडा हो रहा है। तुझे और ज्यादा गरमी लगती होगी।"
"हां, तुझे भी तो गरमी लग रही होगी मां ? जा तु भी बाहर घुम कर आ जा। थोडी गरमी शांत हो जायेगी।"
और उसके हाथ से ईस्त्री ले लेता। पर वो बाहर नही जाती और वहीं पर एक तरफ मोढे पर बैठ जाती। अपने पैर घुटनो के पास से मोड कर और अपने पेटिकोट को घुटनो तक उठा के बीच में समेट लेती। मां जब भी इस तरीके से बैठती थी तो मेरा ईस्त्री करना मुश्कील हो जाता था। उसके इस तरह बैठने से उसकी, घुटनो से उपर तक की जांघे और दीखने लगती थी।
"अरे नही रे, रहने दे मेरी तो आदत पड गई है गरमी बरदाश्त करने की।"
"क्यों बरदाश्त करती है ?, गरमी दिमाग पर चढ जायेगी। जा बाहर घुम के आ जा। ठीक हो जायेगा।"
"जाने दे तु अपना काम कर। ये गरमी ऐसे नही शान्त होने वाली। तेरा बापु अगर समझदार होता तो गरमी लगती ही नही। पर उसे क्या, वो तो कहीं देसी पी के सोया पडा होगा। शाम होने को आई, मगर अभी तक नही आया।"
"अरे, तो इस में बापु की क्या गलती है ? मौसम ही गरमी का है। गरमी तो लगेगी ही।"
"अब मैं तुझे कैसे समझाउं, कि उसकी क्या गलती है ? काश, तु थोडा समझदार होता।"
कह कर मां उठ कर खाना बनाने चल देती। मैं भी सोच में पडा हुआ रह जाता कि, आखिर मां चाहती क्या है ?
"कहां गया था ?"
तो मैं बोलता,
"थोडी ठंडी हवा खाने, बडी गरमी लग रही थी।"
"ठीक किया। बदन को हवा लगाते रहना चाहिये, फिर तु तो अभी बडा हो रहा है। तुझे और ज्यादा गरमी लगती होगी।"
"हां, तुझे भी तो गरमी लग रही होगी मां ? जा तु भी बाहर घुम कर आ जा। थोडी गरमी शांत हो जायेगी।"
और उसके हाथ से ईस्त्री ले लेता। पर वो बाहर नही जाती और वहीं पर एक तरफ मोढे पर बैठ जाती। अपने पैर घुटनो के पास से मोड कर और अपने पेटिकोट को घुटनो तक उठा के बीच में समेट लेती। मां जब भी इस तरीके से बैठती थी तो मेरा ईस्त्री करना मुश्कील हो जाता था। उसके इस तरह बैठने से उसकी, घुटनो से उपर तक की जांघे और दीखने लगती थी।
"अरे नही रे, रहने दे मेरी तो आदत पड गई है गरमी बरदाश्त करने की।"
"क्यों बरदाश्त करती है ?, गरमी दिमाग पर चढ जायेगी। जा बाहर घुम के आ जा। ठीक हो जायेगा।"
"जाने दे तु अपना काम कर। ये गरमी ऐसे नही शान्त होने वाली। तेरा बापु अगर समझदार होता तो गरमी लगती ही नही। पर उसे क्या, वो तो कहीं देसी पी के सोया पडा होगा। शाम होने को आई, मगर अभी तक नही आया।"
"अरे, तो इस में बापु की क्या गलती है ? मौसम ही गरमी का है। गरमी तो लगेगी ही।"
"अब मैं तुझे कैसे समझाउं, कि उसकी क्या गलती है ? काश, तु थोडा समझदार होता।"
कह कर मां उठ कर खाना बनाने चल देती। मैं भी सोच में पडा हुआ रह जाता कि, आखिर मां चाहती क्या है ?
रात में जब खाना खाने का टाईम आता, तो मैं नहा-धो कर किचन में आ जाता, खाना खाने के लिये। मां भी वहीं बैठ के मुझे गरम-गरम रोटियां शेक देती। और हम खाते रहते। इस समय भी वो पेटिकोट और ब्लाउस में ही होती थी। क्योंकि किचन में गरमी होती थी और उसने एक छोटा-सा पल्लु अपने कंधो पर डाल रखा होता। उसी से अपने माथे का पसीना पोंछती रहती और खाना खिलाती जाती थी मुझे। हम दोनो साथ में बाते भी कर रहे होते।
मैने मजाक करते हुए बोलता,
"सच में मा, तुम तो गरम ईस्त्री (वुमन) हो।"
वो पहले तो कुछ समझ नही पाती, फिर जब उसकी समझ में आता की मैं आयरन- ईस्त्री न कह के, उसे ईस्त्री कह रहा हुं तो वो हंसने लगती और कहती,
"हां, मैं गरम ईस्त्री हुं।",
और अपना चेहरा आगे करके बोलती,
"देख कितना पसीना आ रहा है, मेरी गरमी दुर कर दे।"
"मैं तुझे एक बात बोलुं, तु गरम चीज मत खाया कर, ठंडी चीजे खाया कर।"
"अच्छा, कौन सी ठंडी चीजे मैं खांउ, कि मेरी गरमी दुर हो जायेगी ?"
"केले और बैगन की सब्जियां खाया कर।"
इस पर मां का चेहरा लाल हो जाता था, और वो सिर झुका लेती और धीरे से बोलती,
"अरे केले और बैगन की सब्जी तो मुझे भी अच्छी लगती है, पर कोइ लाने वाला भी तो हो, तेरा बापु तो ये सब्जियां लाने से रहा, ना तो उसे केले पसंद ,है ना ही उसे बैगन।"
"तु फिकर मत कर। मैं ला दुन्गा तेरे लिये।"
"हाये, बडा अच्छा बेटा है, मां का कितना ध्यान रखता है।"
मैं खाना खतम करते हुए बोलता,
"चल, अब खाना तो हो गया खतम. तु भी जा के नहा ले और खाना खा ले।"
"अरे नही, अभी तो तेरा बापु देशी चढा के आता होगा। उसको खिला दुन्गी, तब खाउन्गी, तब तक नहा लेती हुं।